हाशिये की पुकार: पसमांदा मुसलमान, जातिगत यथार्थ और पारदर्शी जनगणना की ज़रूरत

 हाशिये की पुकार: पसमांदा मुसलमान, जातिगत यथार्थ और पारदर्शी जनगणना की ज़रूरत

निम्मी ठाकुर

नई दिल्ली।
भारत में जातिगत आंकड़ों को फिर से संकलित करने की केंद्र सरकार की घोषणा एक ऐतिहासिक मोड़ का संकेत देती है। 1931 के बाद पहली बार, देश की जनगणना में जातिगत विवरण को सम्मिलित किया जाएगा। यह पहल विशेष रूप से पसमांदा मुसलमानों — जिनमें पिछड़े, दलित और आदिवासी मुस्लिम समुदाय शामिल हैं — के लिए सामाजिक न्याय की दिशा में एक निर्णायक कदम बन सकती है।

पसमांदा की वास्तविकता और अदृश्यता
भारत में मुस्लिम पहचान को अक्सर एक समरूप और एकरूप समूह के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जिससे आंतरिक जातिगत विभाजन, सामाजिक पदानुक्रम और असमानताएँ अनदेखी रह जाती हैं। पसमांदा मुसलमानों को इसी एकरूपीकरण के कारण दशकों से नीति निर्माण, कल्याणकारी योजनाओं और सामाजिक विमर्श में समुचित प्रतिनिधित्व नहीं मिल पाया है।

तेलंगाना के हालिया जाति सर्वेक्षण में यह सामने आया कि राज्य की लगभग 80% मुस्लिम आबादी पसमांदा समुदायों से आती है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि व्यापक जनगणना में मुस्लिम समाज के अंदर के जातिगत विभाजन को दर्ज करना अत्यंत आवश्यक है।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और बदलती नीतियाँ
औपनिवेशिक काल में ब्रिटिश प्रशासन ने मुस्लिम समाज में भी जातिगत श्रेणियाँ स्पष्ट रूप से पहचानी थीं — जैसे अशरफ़, अजलाफ और अरज़ल — जिनमें सामाजिक दर्जा और अस्पृश्यता के पहलू शामिल थे। 1901 और 1931 की जनगणनाओं में ये वर्गीकरण दर्ज किए गए थे।

हालाँकि, स्वतंत्रता के बाद की भारतीय राज्य व्यवस्था ने मुसलमानों को एक समरूप धार्मिक अल्पसंख्यक मानकर उनकी आंतरिक जातिगत असमानताओं को अनदेखा कर दिया। 1950 में दलित मुसलमानों से अनुसूचित जाति (एससी) आरक्षण छीन लिया गया, जिससे सामाजिक रूप से सबसे पिछड़े मुस्लिम समुदाय और भी अधिक हाशिए पर चले गए।

सच्चर समिति की चेतावनी
2006 में सच्चर समिति की रिपोर्ट ने मुसलमानों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति को बेनकाब किया था। कई पसमांदा मुस्लिम उप-समूहों की स्थिति शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार जैसे क्षेत्रों में अनुसूचित जातियों से भी बदतर पाई गई। इससे यह स्पष्ट हो गया कि बिना जातिगत विवरण के, मुस्लिम समाज के भीतर के अंतर को समझना और नीतिगत हस्तक्षेप करना असंभव है।

जाति जनगणना: सामाजिक न्याय का आधार
जातिगत आंकड़ों का समावेश केवल संख्या इकट्ठा करने की कवायद नहीं है, बल्कि यह हाशिए पर पड़े समुदायों को पहचान दिलाने और उनके लिए न्यायसंगत नीतियों की नींव रखने की प्रक्रिया है। यदि जनगणना पूरी पारदर्शिता के साथ की जाती है, तो यह पसमांदा मुसलमानों के लिए ऐतिहासिक सुधार का द्वार खोल सकती है।

कोई भी प्रयास जो इन आंकड़ों को छिपाने या कम करके दिखाने का प्रयास करे — चाहे सामाजिक कलंक हो या राजनीतिक दबाव — इस पूरी कवायद को विफल कर देगा। पारदर्शिता ही इस जनगणना की आत्मा होनी चाहिए।

समावेशी भविष्य की ओर
जातिगत गणना पसमांदा मुसलमानों को मुस्लिम समाज के भीतर उनकी विशिष्ट पहचान और समस्याओं के साथ केंद्र में लाने का माध्यम बन सकती है। इससे यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि उन्हें केवल एक धार्मिक अल्पसंख्यक के हिस्से के रूप में नहीं, बल्कि सामाजिक रूप से अलग और सकारात्मक कार्रवाई के पात्र समूह के रूप में मान्यता दी जाए।

यह जनगणना केवल आँकड़ों का संग्रह नहीं, बल्कि भारतीय लोकतंत्र की उस प्रतिज्ञा का पुनर्पाठ है — जहाँ हर नागरिक, हर समुदाय, और हर हाशिए को समान अधिकार मिले