भक्ति आंदोलन और सूफीवाद धार्मिक और सांस्कृतिक समन्वय के महत्वपूर्ण स्रोत

 भक्ति आंदोलन और सूफीवाद धार्मिक और सांस्कृतिक समन्वय के महत्वपूर्ण स्रोत
नई दिल्ली। भारतीय संस्कृति की मूल विशेषताओं में उसकी सहिष्णुता, सह-अस्तित्व और विविधता में एकता प्रमुख है।भारत में विभिन्न धर्म, भाषाएँ, परंपराएँ और रीति-रिवाज होते हुए भी सांस्कृतिक एकता बनी हुई है। हिंदू, मुस्लिम, बौद्ध, जैन, सिख, ईसाई आदि सभी समुदायों ने मिलकर भारतीय संस्कृति को समृद्ध किया है। यह विभिन्न संस्कृतियों, परंपराओं और मान्यताओं को स्वीकार कर उन्हें आत्मसात करने की क्षमता रखती है। यहाँ की संस्कृति धर्म और आध्यात्मिकता से गहराई से जुड़ी हुई है और यह आध्यात्मिकता केवल एक धर्म से जुड़ी नहीं है बल्कि  हिंदू वेद-उपनिषद, बौद्ध और जैन दर्शन, इस्लामी सूफी परंपरा और सिख गुरु परंपरा ने भारतीय समाज को नैतिकता और आदर्शों से जोड़ा है। भारत की संस्कृति सभी धर्मों को समान दृष्टि से देखने और उन्हें सम्मान देने की शिक्षा देती है। यही कारण है कि यहाँ विभिन्न धर्मों के लोग सह-अस्तित्व में रहते आए हैं।
भारतीय समाज में अधिव्याप्त सह-अस्तित्व और सामुदायिक सद्भाव  का मूल्य आधुनिक विश्व से आयातित होने के बजाय यहाँ की परंपरा में मौज़ू है।यह सह-अस्तित्व और सामुदायिक सद्भाव प्राचीन काल से ही भारतीय उपमहाद्वीप की  अनोखी विशेषता रही है । प्राचीन काल से ही विभिन्न धार्मिक-सांस्कृतिक  समूह समय समय पर भारतीय समाज में आते रहे ;कुछ ने यहाँ की संस्कृति और सभ्यता के साथ अंतःक्रिया के पश्चात यहाँ की संस्कृति के साथ समन्वय स्थापित करते हुए जीवन निर्वाह की वृत्ति सीख ली वहीं कुछेक धार्मिक-सांस्कृतिक समूहों ने अपनी विशिष्ट विशेषताओं को बनाए रखा ।आर्य-द्रविड़ से प्रारंभ होकर ब्राह्मण-श्रमण परंपरा से होते हुए मध्यकाल में इस्लाम-सनातन हिंदू और आधुनिक काल में भारतीय-यूरोपिय संस्कृति और धार्मिक समूहों के मध्य निरंतर अंतःक्रिया होती रही ;इस दरम्यान इन सबने एक दूसरे को जोड़ा घटाया । इस अंतर्क्रिया की अभिव्यक्ति इतिहास के अधिकांश समय में  समन्वयकारी रही लेकिन कभी -कभी आततायी शासकों के धार्मिक मदांधता के फलस्वरूप  सांप्रदायिक तनाव भी देखने को मिलते है ।प्राचीन भारत में भी सांप्रदायिक सौहार्द और धार्मिक सहिष्णुता के कई उदाहरण मिलते हैं।मौर्य सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म अपनाने के बाद अपने शासनकाल में धार्मिक सहिष्णुता और सांप्रदायिक सौहार्द को बढ़ावा दिया। उन्होंने बौद्ध धर्म का प्रचार किया, लेकिन साथ ही अन्य धर्मों के प्रति भी सम्मान और सहिष्णुता बनाए रखी। उनके शिलालेखों में सभी धर्मों के प्रति सम्मान और अहिंसा का संदेश दिया गया है।इसी प्रकार गुप्त काल को भारतीय इतिहास का स्वर्ण युग माना जाता है। इस समय में हिंदू, बौद्ध, और जैन धर्म एक साथ फलते-फूलते रहे। गुप्त सम्राटों ने सभी धर्मों के प्रति सहिष्णुता का पालन किया और धार्मिक संस्थानों को समर्थन दिया। नालंदा विश्वविद्यालय जैसे संस्थान विभिन्न धर्मों के छात्रों और विद्वानों के लिए खुले थे।मौर्य साम्राज्य के संस्थापक चंद्रगुप्त मौर्य और उनके मंत्री चाणक्य (कौटिल्य) ने एक समावेशी शासन प्रणाली का निर्माण किया, जिसमें सभी धर्मों और संस्कृतियों को स्थान दिया गया। उनकी शासन व्यवस्था में सभी धर्मों के लोगों को समान अवसर और अधिकार दिए गए। कुषाण सम्राट कनिष्क ने बौद्ध धर्म को संरक्षण दिया, लेकिन उनके शासनकाल में हिंदू, बौद्ध, और अन्य धर्मों के लोग भी शांति और सौहार्द के साथ रहते थे। उनके शासन में धार्मिक सहिष्णुता और सांस्कृतिक समन्वय का एक अच्छा उदाहरण देखने को मिलता है।प्राचीन भारतीय साहित्य और शिक्षा में भी सांप्रदायिक सौहार्द के उदाहरण मिलते हैं। महाभारत, रामायण, उपनिषद, और पुराण जैसे ग्रंथों में धर्म, सहिष्णुता, और मानवीय मूल्यों का उल्लेख किया गया है। तक्षशिला और नालंदा जैसे प्राचीन विश्वविद्यालयों में विभिन्न धर्मों के छात्र और विद्वान शिक्षा प्राप्त करते थे और एक-दूसरे के विचारों का आदान-प्रदान करते थे।इन उदाहरणों से स्पष्ट होता है कि प्राचीन भारत में भी सांप्रदायिक सौहार्द और धार्मिक सहिष्णुता की महत्वपूर्ण भूमिका थी, जिसने समाज को समृद्ध और संतुलित बनाए रखा।
भक्ति आंदोलन और सूफीवाद दोनों ही धार्मिक और सांस्कृतिक समन्वय के महत्वपूर्ण स्रोत थे। भक्ति संत जैसे कबीर, गुरु नानक, और मीराबाई ने धार्मिक भेदभाव को नकारा और सभी धर्मों के प्रति सम्मान का संदेश दिया। सूफी संतों जैसे ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती, निजामुद्दीन औलिया, और बाबा फरीद ने भी हिंदू-मुस्लिम एकता और प्रेम का प्रचार किया।मुगल सम्राट अकबर ने धार्मिक सहिष्णुता को बढ़ावा दिया और विभिन्न धर्मों के लोगों को अपने दरबार में शामिल किया। उन्होंने “दीन-ए-इलाही” नामक एक नए धर्म की स्थापना की, जो विभिन्न धर्मों की शिक्षाओं का समन्वय था। यदि आततायी शासकों का स्याह इतिहास है जिन्होंने कुछ समय के लिए देश और समाज में साम्प्रदायिक सद्भाव को बिगाड़ने का कार्य किया तो बुद्ध ,कबीर , गोस्वामी तुलसीदास ,गाँधी और आंबेडकर जैसे नायकों ने यह स्थापित करने का प्रयास किया कि देश का असली नायक वही  हो सकता  है जिसमें समन्वय की विराट चेष्टा हो ।जहाँ एक राष्ट्र के रूप में इस मुल्क के सामने आधुनिक चुनौतियां  और आधुनिक लक्ष्य है वहीं  एक समाज के रूप में भारतीय समाज में व्याप्त परम्परागत सांस्कृतिक-नृजातीय विविधता यदा कदा राष्ट्रीय लक्ष्यों के समक्ष टकराहट के रूप में दिखायी देती है। हमें इस बात को अपने ज़हन में बैठा कर रखना होगा कि यदि इस देश को 2047 तक विकसित राष्ट्र बनाना है तो राष्ट्र-राज्य की आकांक्षाओं  और समाज के पारंपरिक मूल्यों  के मध्य टकराहट को कम करना होगा।