लैंगिक रूढ़ियों पर प्रहार करती सुप्रीम कोर्ट की पुस्तिका ‘जबान संभाल के बोलो’ का महत्व

 लैंगिक रूढ़ियों पर  प्रहार करती सुप्रीम कोर्ट की पुस्तिका ‘जबान संभाल के बोलो’ का महत्व

हेमलता म्हस्के

सुप्रीम कोर्ट द्वारा तीस पेज की परिवर्तनकारी जारी पुस्तिका के जरिए लैंगिक रूढ़िवादिता को दूर करने के लिए बेहतरीन पहल की गई है। निश्चय ही उक्त पुस्तिका का संदेश जन जन के मध्य पहुचना जरूरी है। उक्त पुस्तिका की बातों को अमल में लाया जाएगा तो महिलाओं के साथ भेदभाव कम होगा। वे भी खुद को स्वतंत्र नागरिक समझेंगी।

सुप्रीम कोर्ट द्वारा महिलाओं के लिए प्रयोग होने वाले आपत्तिजनक शब्दों पर रोक लगाने के लिए उक्त पुस्तिका जारी की गई है। उक्त पुस्तिका के माध्यम 43 रूढ़िवादी शब्दों और करीब इतने ही शर्मनाक वाक्यांश और पूर्वाग्रह वाले वाक्यों का इस्तेमाल ना करने के बारे में निर्देश दिया गया है। आपत्ति जनक शब्दों की जगह वैकल्पिक शब्दों और भाषा का सुझाव दिया गया है। अब वैश्या शब्द नहीं, सेक्स वर्कर कहना होगा। महिला हाउस वाइफ नही, होम मेकर होंगी कुंवारी मां अब सिर्फ मां कहलाई जायेगी।

सुप्रीम कोर्ट की उक्त पुस्तिका जजों, वकीलों और विधिवेत्ताओं के बीच चर्चा का विषय बनी हुई है। उक्त पुस्तिका को न्यायिक प्रणाली के भीतर निर्णयों, आदेशों और अदालती दस्तावेजों में पक्षपात पूर्ण भाषा और शब्दों के अनजाने उपयोग से निजात दिलाने के लिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा लाया गया है। पुस्तिका कानूनी वक्तव्यों में मौजूद रूढ़िवादिता को खत्म करने की एक घोषणा भी है। इस पुस्तिका का सबसे अधिक लाभ महिलाओं को मिलेगा क्योंकि समाज और घर परिवार में सदियों से व्याप्त लैंगिक रूढ़िवादिता के बुरे असर के लिए सबसे अधिक कीमत महिलाओं की अनेक पीढ़ियों ने ही चुकाई है।

लैंगिक रूढ़िवादिता के कारण ही लड़कियां गुणवत्तापूर्ण शिक्षा से वंचित रहती आई हैं। महिलाओं की भूमिका को भी घरेलू और पारिवारिक क्षेत्रों तक सीमित कर रखा जाता रहा है। लैंगिक रूढ़िवादिता के चलते ही महिलाओं के लिए समाज में उच्च प्रतिष्ठित पद पर पहुंच पाना संभव नहीं हो पा रहा था। स्त्री पुरुष के बीच शिक्षा, रोजगार और वेतन में लगातार असमानता को बरकरार बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यह लैंगिक रूढ़िवादिता की वजह से ही महिलाऐ पुरुष के अधीन रहती आई हैं। जबकि हमारा संविधान स्त्री पुरुष को समान अधिकार देता है। इस सबके बावजूद महिलाओं को दूसरे दर्जे का समझा और माना जाता रहा है। लैंगिक रूढ़िवादिता का आलम यह है कि संविधान में बराबरी का दर्जा होने के बावजूद सभी यही मानते हैं कि महिलाएं ही घर का सारा काम करे और वे केवल परंपरागत कपड़े ही पहने। सिर्फ महिलाएं ही सास ससुर की सेवा करें जबकि यह जिम्मेदारी पूरे परिवार की होनी चाहिए। यह सोच भी गलत है कि महिलाऐ कुछ फैंसी कपड़े पहनती हैं तो वह सेक्स की इच्छा रखती है, इसी सोच के आधार पर किसी स्त्री को कोई पुरुष उसकी सहमति के बगैर टच करता है तो इसमें गलती पुरुष की नही उस महिला की गलती मानी जाती है कि उसने फैंसी या गैर परंपरागत कपड़े धारण किए हैं।

धारणा रही है, कोई महिला शराब या सिगरेट पी रही है तो इसका मतलब यह नहीं है कि वह किसी को सेक्स के लिए या टच के लिए आमंत्रित कर रही है। सुप्रीम कोर्ट ने इस धारणा को गलत बताते हुए कहा है कि अगर महिला अन्य लोगों की तरह सिगरेट या अल्कोहल का सेवन करती है तो उसके कई कारण हो सकते हैं। और इसका मतलब यह एकदम नहीं है कि कोई उसकी मर्जी के बिना उसे टच करे।

स्त्री पुरुष बराबरी का महत्वपूर्ण संदेश देती यह पुस्तिका कानूनी प्रक्रिया में बदलाव के साथ सामाजिक मानसिकता को बदलने में भी भूमिका निभायेगी सोचा जा सकता है। जरूरत है उक्त पुस्तिका का प्रभाव प्रशासनिक क्षेत्रों और खासकर पुलिस विभाग पर भी पड़े। यह पुस्तिका मजबूत भारत की दिशा में सराहनीय पहल है।

महिलाएं आगे बढ़ रही हैं, पुरुषों के वर्चस्व वाले सभी क्षेत्रों में अपने कामयाबी के परचम लहरा दिए हैं, लेकिन लैंगिक रूढ़िवादिता को खत्म करने की दिशा में पर्याप्त कोशिश नही की गई है। देश की तरक्की तभी जब महिलाओं को भी एक नागरिक की भूमिका निभाने के लिए अनुकूल माहौल मिले।