जनजातीय कला का उत्सव: काशी में प्रदर्शित हुई नीलगिरि की सदियों पुरानी टोडा कढ़ाई

 जनजातीय कला का उत्सव: काशी में प्रदर्शित हुई नीलगिरि की सदियों पुरानी टोडा कढ़ाई

देहरादून/वाराणसी। काशी तमिल संगमम् 4.0 के तहत नमो घाट स्थित प्रदर्शनी में स्टॉल संख्या 44 पर नीलगिरि, तमिलनाडु से आईं अनुराधा हालान और विनोधासिन द्वारा प्रस्तुत टोडा हैंड एम्ब्रॉयडरी ने आगंतुकों का विशेष ध्यान आकर्षित किया। टोडा जनजाति की यह पारंपरिक कढ़ाई कला पूरी तरह हस्तनिर्मित होती है और वर्ष 2013 में इसे भारत सरकार द्वारा भू-चिह्न (जीआई टैग) की मान्यता प्राप्त हुई। टोडा समुदाय लगभग 80–85 वर्षों से इस विरासत कला को संरक्षित कर रहा है, जबकि अनुराधा जी और विनोधासिन पिछले दो दशकों से इसके संरक्षण और प्रसार में सक्रिय भूमिका निभा रही हैं।

टोडा कढ़ाई की शुरुआत ‘पुथुकुली’ नामक पारंपरिक वस्त्र से मानी जाती है, जिसे टोडा महिलाएं स्वयं बुनती और विशिष्ट लाल–काले धागों से सजाती थीं। समय के साथ यह कला विकसित होकर शॉल, स्टोल, पर्स, पोटली बैग, टेबल क्लॉथ, किचन कवर, जैकेट, नैपकिन, नेकपीस, हेयरबैंड और पैचवर्क जैसे अनेक उत्पादों के रूप में लोकप्रिय हो चुकी है। यह कला न केवल सांस्कृतिक पहचान का प्रतीक है बल्कि टोडा जनजाति की आजीविका का महत्वपूर्ण आधार भी है।

इन उत्पादों की बिक्री स्वयं सहायता समूहों, सहकारी समितियों और ऊटी हैंडलूम विभाग के माध्यम से की जाती है। ऊटी एक प्रमुख पर्यटन स्थल होने के कारण वहां पर्यटकों के बीच टोडा उत्पादों की मांग अत्यधिक रहती है। साथ ही, कलाकार ग्राहकों की पसंद के अनुसार कस्टमाइज़्ड उत्पाद भी तैयार करते हैं, जिससे इस कला का विस्तार और भी बढ़ा है।

अपनी कला यात्रा साझा करते हुए अनुराधा हालान ने बताया कि उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय और एनआईएफटी बेंगलुरु सहित कई प्रतिष्ठित संस्थानों में कार्यशालाएं आयोजित की हैं। लखनऊ विश्वविद्यालय की दो छात्र–बैचों ने उनके साथ फील्डवर्क भी किया, जिससे विद्यार्थियों को जनजातीय कला की बारीकियों को समझने का अवसर मिला।

स्टॉल पर ग्राहकों की सकारात्मक प्रतिक्रिया भी देखने को मिली। तेलंगाना से आए एक परिवार ने हेयरबैंड और पर्स खरीदते हुए कहा कि यह कढ़ाई भले ही महंगी प्रतीत होती हो, परंतु इसकी हस्तनिर्मित गुणवत्ता और अनोखे डिज़ाइन इसे पूरी तरह मूल्यवान बनाते हैं। अनुराधा जी के अनुसार लोग इस कला को देखकर अत्यंत उत्साहित होते हैं और नई–नई भारतीय हस्तकलाओं के बारे में जानकर प्रसन्न होते हैं, हालाँकि कभी–कभी कीमत अधिक होने के कारण कुछ लोग खरीदने में संकोच भी करते हैं।

काशी के अनुभव को “अविस्मरणीय और प्रेरणादायक” बताते हुए अनुराधा हालान ने भारत सरकार, तमिलनाडु सरकार और उत्तर प्रदेश सरकार का आभार व्यक्त किया, जिन्होंने उन्हें नीलगिरि की इस जीआई-टैग प्राप्त अनोखी जनजातीय कला को राष्ट्रीय स्तर पर प्रस्तुत करने का अवसर प्रदान किया।