“हिंदी: स्वतंत्रता संग्राम से अंतरराष्ट्रीय पहचान तक”

Political Trust Magazine-New Delhi “हिंदी” भारतीय संस्कृति की सबल, समर्थ और सशक्त संवाहिका है!भारत में 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के बाद जब देशवासियों के सामने एक राष्ट्र के रूप में संगठित होकर ब्रिटिश शासन से लोहा लेने की बात आई तो सामने आया समस्त राष्ट्र के साथ संवाद की, किसी एक भाषा का प्रश्न भी यद्यपि महर्षि दयानंद सरस्वती लोकमान्य तिलक शारदा चरण मित्र प्रभत्ति विद्वान और नेता हिंदी के पक्षधर रहे थे किंतु देश की राष्ट्रभाषा के रूप में इसकी पहचान सर्वप्रथम महात्मा गांधी ने ही की 1915 में दक्षिण अफ्रीका से लौट के बाद उन्होंने पूरे भारत का भ्रमण किया और देखा कि इस विशाल देश में अनेक भाषाएं और बोलियां बोलने वाले लोग रहते हैं और यहां कई समृद्ध भाषाएं हैं किंतु वे भी अपने सीमित क्षेत्र की ही भाषा है उन्होंने पाया कि हिंदी ही एकमात्र ऐसी भाषा है जो समस्त देश में अधिकांश लोगों द्वारा अधिकतर क्षेत्र में बोली और समझी जाती है इसलिए उन्होंने राष्ट्र की एकता के लिए राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी की पहचान की और इसे स्वतंत्रता संग्राम का एक प्रबल सशस्त्र बनाया 1947 में देश स्वतंत्र हुआ और देश का नया संविधान 26 जनवरी 1950 से लागू हुआ इसके अनुच्छेद 343 में हिंदी को देश की राजभाषा के रूप में प्रतिष्ठित किया गया यहां यह उल्लेखनीय है कि संविधान में राजभाषा हिंदी का तो उल्लेख है किंतु राष्ट्रभाषा का कोई उल्लेख नहीं है यह सही है की राष्ट्रभाषा किसी भी राष्ट्र की स्वाभाविक जनभाषा होती है वह बनाई नहीं जाती जबकि राजभाषा सरकार द्वारा निश्चित की जाती है राजभाषा के लिए यह आवश्यक नहीं है कि वह इस देश की ही कोई भाषा हो विदेशी भाषा भी राजभाषा हो सकती है स्वयं ब्रिटेन इसका उदाहरण है जहां कई सौ वर्षो तक फ्रेंच राजभाषा रही थी भारत में भी सिकंदर लोदी के समय से लेकर मुगल शासन के अंत तक फारसी राजभाषा के पद पर आसीन रही फिर ईस्ट इंडिया कंपनी और ब्रिटिश राज में अंग्रेजी राजभाषा बनी
हिंदी का इतिहास लगभग 1000 वर्ष पुराना है आरंभ में इस भाषा का कोई विशेष नाम नहीं था इस “भाषा” या “भाखा” ही कहा जाता रहा हमारे प्राचीन बाड़ गमय में कहीं हिंदी शब्द के दर्शन नहीं होते बाहर आने वाले विदेशियों ने इसे हिंदूई या हिंदवी अमीर खुसरो अपनी मसनवी नूह में लिखते हैं, हिंदूवी बूंद अस्त दर अय्याम ए कुहन अर्थात हिंदी प्राचीन काल से ही रही है यह नाम 1800 ई तक फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना तक सुनने को मिलता है इस भाषा के लिए और कोई और भी कई नाम प्रचलित हुए इसे हिंदुस्तान की भाषा के नाम पर हिंदुस्तानी भी कहा गया फरिश्ता 1607 ई तथा तेरी 1616 ई और कैटलॉग 1715 ई ने इसके लिए हिंदुस्तानी शब्द का ही प्रयोग किया है आधुनिक युग में महात्मा गांधी भी इस भाषा को हिंदुस्तानी ही कहना पसंद करते थे पिछले 1000 वर्ष की अपने इतिहास में हिंदी का निरंतर किसी न किसी रूप में विकास होता रहा है इसकी मानक स्वरूप को स्थिर होने में भी समय लगा प्राकृतिक और अपभ्रंश से उपजी है भाषा कभी क्षेत्रीय प्रभाव से अवधी के रूप में मुखरित हुई तो कभी ब्रजभाषा के सांचे में ढल काव्य का व्यापक माध्यम बनी और असम तक पहुंची ऐतिहासिक कारणों से दिल्ली के सत्ता केंद्र बनने से यहां की समीपवर्ती बोली कौरवी पर आधारित हो गई जब मोहम्मद तुगलक ने सत्ता का केंद्र दक्षिण में देवगिरी को बनाया तो दक्षिण में विकसित होकर यह दक्खिनी कहलाई जब भारत से गए लोग इसे मॉरीशस,फिजी,सूरीनाम और त्रिनाथ आदि देशों में ले गए तो वहां भोजपुरी का रंग इस पर चढ़ गया और सूरीनाम में यह “सरनामी” कहलई
हिंदी एकमात्र एक भाषा ही नहीं भारतीय संस्कृति की एक सवल, समर्थ और सशक्त संवाहिका भी है जो देश के ही नहीं विदेशों में बसे करोड़ों की संख्या में प्रवासी भारतीयों और भारत मूल के लोगों के बीच आत्मीयता के मधुर संबंध स्थापित करने और उन्हें भारत, भारतीयता और भारतीय संस्कृति से निरंतर जोड़े रखने में एक सशक्त माध्यम का काम करती है इसी में भी अपनी अस्मिता की पहचान भी पाते हैं यह विश्व की अनेक देशों में बोली पढ़ाई और सराही जाती है जनसंख्या की दृष्टि से देखें तो विश्व में हिंदी बोलने वालों का स्थान चीनी भाषा के बाद दूसरा और यदि श्री जयंती प्रसाद नौटियाल की माने तो शायद पहले है विश्व की अनेक विश्वविद्यालय में यह उच्च अध्ययन और शोध की भाषा बन चुकी है और आज विश्व के ब्रांड फलक पर अपने अस्तित्व को आकार देकर एक विश्व भाषा के रूप में अपनी भूमिका निभाने के लिए तत्पर है आज विदेशी मूल के अनेक साहित्यकार हिंदी में मूल रचनाएं कर हिंदी साहित्य की अभिवृद्धि में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं आप समय आ गया है कि हम हिंदी साहित्य का व्यापक इतिहास लिखने के लिए विदेश में रची जा रहे हिंदी साहित्य को भी समाविष्ट करना होगा हिंदी की इस विश्व व्यापी भूमिका को मंदिर नजर रखते हुए अब तक विश्व हिंदी सम्मेलन हो चुके हैं हमें गर्व है कि हिंदी की अंतरराष्ट्रीय स्वरूप को दृष्टि में रखते हुए ही सर्वप्रथम 4 अक्टूबर 1976 को तत्कालीन विदेश मंत्री अटल बिहारी वाजपेई ने संयुक्त राष्ट्र संघ में अपना मूल भाषण हिंदी में देकर विश्व के सामने हिंदी के गौरव को बढ़ाया था आज विश्व के अनेक मंच पर हमारे देश के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी अपना भाषण हिंदी में देकर विश्व में उसका मान बढ़ाते हैं हिंदी का स्वरूप एक राष्ट्रभाषा से ऊपर उठकर एक अंतरराष्ट्रीय भाषा का भी है और इसके विकास पर हमें इसी दृष्टि से ही विचार करना होगा हिंदी वास्तव में किसी एक भाषा अथवा बोली का नाम नहीं है, अपितु एक सामाजिक भाषा परंपरा की संज्ञा है आज पूरे विश्व में भारतीय अपनी हिंदी भाषा से संवाद बड़े गर्व के साथ करते हैं जो हम सबको इसका बोध कराता है कि हिंदी भाषा भारतीय संस्कृति की सबल, समर्थ और सशक्त संवाहिका है
लेखक
दिनेश कुमार गौड़
वरिष्ठ पत्रकार एवं (पूर्व) “सदस्य” (हिंदी सलाहकार समिति) वस्त्र मंत्रालय, भारत सरकार