“सीमा पर विश्वासघात, भीतर इंसाफ की पुकार: नफ़रत नहीं, न्याय चाहिए”

NIMMI THAKUR
22 अप्रैल को पहलगाम घाटी में जो हुआ, वह केवल एक आतंकी हमला नहीं था—वह शांति, भरोसे और मानवता पर हमला था। हरे-भरे मैदानों, कल-कल बहती नदियों और सैलानियों की मुस्कान से भरी घाटी उस दिन गोलियों की गूँज से दहल उठी। 26 निर्दोष जिंदगियाँ खत्म हो गईं। दर्द और ग़ुस्सा वाजिब है। पर अब जब आज फिर सीमा पार से सीज़फायर का उल्लंघन हुआ है, तो एक सवाल फिर हमारे सामने खड़ा है—हम इसका जवाब कैसे दें?
इस बार की गोलीबारी केवल एक उकसावे की कार्रवाई नहीं थी—यह विश्वासघात था। क्योंकि दोनों देशों के बीच आज शाम से सीमावर्ती क्षेत्रों में ‘फ्री फायर ज़ोन’ लागू होने वाला था, यानी दोनों पक्षों ने सीमित सैन्य सक्रियता के नियमों में थोड़ी ढील देने पर सहमति जताई थी ताकि स्थानीय नागरिकों को राहत मिल सके। पाकिस्तान द्वारा सीज़फायर का उल्लंघन करना इस प्रक्रिया की जड़ों में मट्ठा डालने जैसा है।
सीमा पर उकसावे की कार्रवाई हो या भीतर की सामाजिक अशांति, जवाब दोनों को देना ज़रूरी है। लेकिन जवाब हिंसा से नहीं, विवेक से आना चाहिए। यह वह समय है जब भारत को अपने सबसे बड़े हथियार—संविधान, न्याय और एकता—का इस्तेमाल करना है।
हमने देखा कि कैसे पूरे देश में आम लोगों ने आतंकवाद की निंदा की, पर किसी समुदाय पर उँगली उठाने से इनकार किया। मस्जिदों में मोमबत्तियाँ जलीं, चर्चों और मंदिरों में दुःख साझा किया गया। यह उस भारत की तस्वीर थी जो आतंकियों के नफ़रत भरे एजेंडे को ठुकरा देता है।
आज, जब फिर सीमा से बारूद की बू आ रही है, हमें याद रखना होगा कि शहीदों के खून की कीमत नफ़रत से नहीं, न्याय से चुकाई जाती है। हमें आतंक के खिलाफ कड़ा रुख रखना है, लेकिन उसमें नागरिकों की गरिमा, धार्मिक सहिष्णुता और संवैधानिक मूल्यों की बलि नहीं चढ़नी चाहिए।
समाज को भी अब यह तय करना होगा कि वह शोक की इस घड़ी को प्रतिशोध में बदलेगा या न्याय की ओर ले जाएगा। इतिहास गवाह है कि हर बार जब हमने समावेश को चुना, हमने हार को जीत में बदला।
क़लम की ज़िम्मेदारी है कि वह तलवार को रोके, और आज की सबसे बड़ी लड़ाई यही है—ताकि नफ़रत के उस पार न्याय खड़ा रह सके। भारत का भविष्य इसी संतुलन में है