दरका दक्षिण का द्वार

निम्मी ठाकुर
कर्नाटक की हार के साथ ही भाजपा का दक्षिण भारत का एक मात्र बुनियाद दरक गई । पार्टी अब सिर्फ हिन्दी पट्टी और उत्तर पूरव तक रह गयी। विंध्य पार के राज्यों में नेता और मुद्दा विहीन होना भाजपा के लिए घातक साबित हो गया। यह चुनाव कांग्रेस के लिए प्राण वायू साबित हो सकता है खास कर आने वाले विधान सभा और लोकसभा चुनाव 2024 के लिए। दक्षिण भारत में लोकसभा की कुल 130 सीट हैं। भाजपा के पास इस समय 29 सांसद दक्षिण भारत से हैं। पार्टी इस चुनाव में दक्षिण भारत में 60 सीट जीतने का लक्ष्य लेकर चल रही है। कर्नाटक के नतीजों के बाद पार्टी को नई रणनीति बनानी होगी।
इस साल राजस्थान, मध्य प्रदेश, तेलंगाना, छत्तीसगढ़ और मिजोरम में विधान सभा के चुनाव होने हैं। यहां कांग्रेस के साथ भाजपा का सीधा मुकाबला है जो भाजपा के लिए अब ज्यादा कठिन हो सकता है।
भाजपा के लिए चिंता की बात यह है कि दक्षिण भारतीय राज्यों में पार्टी के पास कद्दाव नेता नहीं है। येदियुरप्पा के रूप में एक मात्र कद्दावर नेता पार्टी के पास कर्नाटक में है, जो सक्रिय सियासत से विदा हो चुके हैं। केरल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, पुद्दुचेरी में भाजपा के पास स्थापित या चमत्कारी नेता नहीं है। तेलंगाना में पार्टी अध्यक्ष बंडी संजय के रूप में भाजपा को उम्मीद है लेकिन इसे झटका लगा। पास बड़ा चेहरा है लेकिन कर्नाटक की हार से पार्टी को झटका लगा।
सूत्रों का कहना है कि कर्नाटक हार की वजह की फौरी समीक्षा में यह तथ्य उजागर हुआ है कि, त्रिकोणीय मुकाबले में, अब तक भाजपा को बढ़त हासिल होती रही है जिसका सिलसिला कर्नाटक में टूट गया है। चूंकि दक्षिणी राज्यों में कांग्रेस कर्नाटक और केरल में काफी मजबूत स्थिति में है साथ ही तमिलनाडु में पार्टी का डीएमके के साथ मजबूत गठबंधन है इसलिए इन राज्यों में भाजपा की चिंता अधिक है।
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डबल इंजन और हिंदूत्व का कार्ड नहीं चला
हिमाचल के बाद कर्नाटक में भी हिंदूत्व और डबल इंजन का नारा फेल हो गया। ऐसे में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और तेलंगाना जैसे राज्यों में यह नारा सटीक बैठेगा इसको लेकर भाजपा में एक राय बनना मुश्किल लगता है।
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भाजपा को अपने कोर वोट बैंक पर जबरदस्त भरोसा रहा है। लेकिन कर्नाटक में भाजपा का कोर वोट बैंक (लिंगायत) टूट गया। कित्तूर कर्नाटक (मुंबई-कर्नाटक) जहां लिंगायत अछ्छी तादाद में हैं वहां भाजपा को बड़ा झटका लगा है।
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स्नेह मिलन और अन्य कार्यक्रम के जरिए भाजपा अल्पसंख्यकों (मुस्लिमों) में पैठ बनाने की कोशिश कर रही थी। पिछले साल हैदराबाद की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में इसका प्रस्ताव भी पार्टी ने पारित किया था। लेकिन कर्नाटक चुनाव नतीजे यह साबित करते हैं कि अल्पसंख्यकों के लिए भाजपा अभी तक न सिर्फ अछूत बनी है, बल्कि अल्पसंख्यक, वोट एकजुट होकर भाजपा के खिलाफ वोट डाल रहे हैं।
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केंद्र और कर्नाटक सरकार दलित,ओबीसी और ट्राइबल समुदाय के कल्याण के लिए खुद को समर्पित बताती रही है,लेकिन कर्नाटक में भाजपा को इसका खास लाभ नहीं हुआ।
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कर्नाटक चुनाव में मंडल (वोक्कालिग्गा और लिंगायत) को 2-2 फीसदी आरक्षण देने का मुद्दा नहीं चला। साथ ही कमंडल (बजरंगबली) का मुद्दा भी क्लिक नहीं किया। मिशन दक्षिण के लिए फिलहाल भाजपा के पास सियासी हथियार यही हैं, जिसकी धार कर्नाटक चुनाव में कुंद पड़ गया।