शिबू सोरेन का जीवन किसी प्रेरणादायक महाकाव्य से कम नहीं
- दिल्ली राष्ट्रीय
Political Trust
- August 4, 2025
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नई दिल्ली। झारखंड की धरती पर ‘दिशोम गुरु’ के नाम से मशहूर शिबू सोरेन का जीवन किसी प्रेरणादायक महाकाव्य से कम नहीं है।
11 जनवरी 1944 को रामगढ़ जिले के नेमरा गांव में जन्मे शिबू सोरेन ने अपने जीवन को संघर्ष की भट्टी में तपाकर सोने की तरह निखारा। झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) के संस्थापक और तीन बार के मुख्यमंत्री रहे शिबू सोरेन ने न केवल आदिवासी समाज के अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी, बल्कि अलग झारखंड राज्य के निर्माण में भी निर्णायक भूमिका निभाई।
हाल ही में उन्हें झारखंड आंदोलनकारी के रूप में मान्यता दी गई, जो उनके जीवन की तपस्या और समर्पण का प्रतीक है।
शिबू सोरेन का बचपन अभावों और चुनौतियों से भरा था। उनके पिता सोबरन सोरेन एक स्कूल शिक्षक थे, जिन्हें महाजनों ने जमीन हड़पने के लिए धोखे से मार डाला। इस घटना ने युवा शिबू के मन में गहरी छाप छोड़ी और उन्हें साहूकारों व शोषकों के खिलाफ लड़ने की प्रेरणा दी।
गरीबी और सामाजिक अन्याय के खिलाफ उनकी आवाज नेमरा की गलियों से निकलकर पूरे झारखंड में गूंजी। उन्होंने 1969-70 में नशाबंदी, साहूकारी और जमीन बेदखली के खिलाफ जनांदोलन शुरू किया, जिसने उन्हें आदिवासी समाज का नायक बना दिया।
1980 में रक्खी मोर्चा की नींव
1980 के दशक में शिबू सोरेन ने बिनोद बिहारी महतो के साथ मिलकर झारखंड मुक्ति मोर्चा की नींव रखी। 1987 में झामुमो की विशाल जनसभा में उन्होंने अलग झारखंड राज्य के लिए निर्णायक लड़ाई का आह्वान किया।
1989 में उन्होंने विधायक पद से इस्तीफा देकर केंद्र सरकार को 30 मई तक अलग राज्य की मांग पूरी करने का अल्टीमेटम दिया। छोटा नागपुर अलग संघर्ष समिति के सदस्य के रूप में उन्होंने साहूकारों और सूदखोरों के खिलाफ आंदोलन को तेज किया।
झारखंड क्षेत्र स्वशासी परिषद के 180 सदस्यों में से 89 के साथ वे इस संघर्ष में शामिल रहे। उनकी यह लड़ाई 2000 में झारखंड राज्य के गठन के साथ पूरी हुई, जो उनके जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि थी। शिबू सोरेन का राजनीतिक जीवन उतार-चढ़ाव से भरा रहा। वे तीन बार झारखंड के मुख्यमंत्री बने, लेकिन उनकी राह आसान नहीं थी।
2006 में कोर्ट ने सुनाई सजा
2004 में यूपीए-1 सरकार में कोयला मंत्री के रूप में उनकी नियुक्ति हुई, लेकिन एक पुराने हत्या के मामले में विवादों के कारण उन्हें पद छोड़ना पड़ा। 2006 में कोर्ट ने उन्हें सजा सुनाई, हालांकि बाद में वे बरी हुए।
इस दौरान उनके बेटे हेमंत सोरेन ने झामुमो की कमान संभाली और शिबू सोरेन संरक्षक के रूप में मार्गदर्शन करते रहे। उनके समर्थक उन्हें आदिवासियों का मसीहा मानते हैं, जिन्होंने अपनी जवानी झारखंड की अस्मिता के लिए समर्पित कर दी।
आदिवासी समाज को दिलाई पहचान
81 वर्षीय शिबू सोरेन को लोग ‘दिशोम गुरु’ इसलिए कहते हैं, क्योंकि उन्होंने आदिवासी समाज को उनकी पहचान और अधिकार दिलाने के लिए जीवनभर संघर्ष किया। झारखंड आंदोलनकारी चिह्नितीकरण आयोग द्वारा उन्हें आंदोलनकारी घोषित किया जाना उनके त्याग और बलिदान की स्वीकृति है।
हाल ही में उन्हें झारखंड आंदोलनकारी के रूप में मान्यता दी गई, जो उनके जीवन की तपस्या और समर्पण का प्रतीक है।
शिबू सोरेन का बचपन अभावों और चुनौतियों से भरा था। उनके पिता सोबरन सोरेन एक स्कूल शिक्षक थे, जिन्हें महाजनों ने जमीन हड़पने के लिए धोखे से मार डाला। इस घटना ने युवा शिबू के मन में गहरी छाप छोड़ी और उन्हें साहूकारों व शोषकों के खिलाफ लड़ने की प्रेरणा दी।
गरीबी और सामाजिक अन्याय के खिलाफ उनकी आवाज नेमरा की गलियों से निकलकर पूरे झारखंड में गूंजी। उन्होंने 1969-70 में नशाबंदी, साहूकारी और जमीन बेदखली के खिलाफ जनांदोलन शुरू किया, जिसने उन्हें आदिवासी समाज का नायक बना दिया।
1980 में रक्खी मोर्चा की नींव
1980 के दशक में शिबू सोरेन ने बिनोद बिहारी महतो के साथ मिलकर झारखंड मुक्ति मोर्चा की नींव रखी। 1987 में झामुमो की विशाल जनसभा में उन्होंने अलग झारखंड राज्य के लिए निर्णायक लड़ाई का आह्वान किया।
1989 में उन्होंने विधायक पद से इस्तीफा देकर केंद्र सरकार को 30 मई तक अलग राज्य की मांग पूरी करने का अल्टीमेटम दिया। छोटा नागपुर अलग संघर्ष समिति के सदस्य के रूप में उन्होंने साहूकारों और सूदखोरों के खिलाफ आंदोलन को तेज किया।
झारखंड क्षेत्र स्वशासी परिषद के 180 सदस्यों में से 89 के साथ वे इस संघर्ष में शामिल रहे। उनकी यह लड़ाई 2000 में झारखंड राज्य के गठन के साथ पूरी हुई, जो उनके जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि थी। शिबू सोरेन का राजनीतिक जीवन उतार-चढ़ाव से भरा रहा। वे तीन बार झारखंड के मुख्यमंत्री बने, लेकिन उनकी राह आसान नहीं थी।
2006 में कोर्ट ने सुनाई सजा
2004 में यूपीए-1 सरकार में कोयला मंत्री के रूप में उनकी नियुक्ति हुई, लेकिन एक पुराने हत्या के मामले में विवादों के कारण उन्हें पद छोड़ना पड़ा। 2006 में कोर्ट ने उन्हें सजा सुनाई, हालांकि बाद में वे बरी हुए।
इस दौरान उनके बेटे हेमंत सोरेन ने झामुमो की कमान संभाली और शिबू सोरेन संरक्षक के रूप में मार्गदर्शन करते रहे। उनके समर्थक उन्हें आदिवासियों का मसीहा मानते हैं, जिन्होंने अपनी जवानी झारखंड की अस्मिता के लिए समर्पित कर दी।
आदिवासी समाज को दिलाई पहचान
81 वर्षीय शिबू सोरेन को लोग ‘दिशोम गुरु’ इसलिए कहते हैं, क्योंकि उन्होंने आदिवासी समाज को उनकी पहचान और अधिकार दिलाने के लिए जीवनभर संघर्ष किया। झारखंड आंदोलनकारी चिह्नितीकरण आयोग द्वारा उन्हें आंदोलनकारी घोषित किया जाना उनके त्याग और बलिदान की स्वीकृति है।