बिहार पहला चरण चुनाव: ढह रही जातीय गोलबंदी; महिलाएं बनेगी किंगमेकर
- बिहार राजनीति राष्ट्रीय
Political Trust
- November 7, 2025
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Nimmi Thakur
पटना। बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में पहले चरण की रिकॉर्ड वोटिंग ने जातीय राजनीति की दीवारों को हिला दिया है। महिलाएं किंगमेकर बन रहीं, युवा दिखा रहे नया रास्ता।
जानिए क्यों यह मतदान है बिहार की सियासत में बदलाव का संकेत।
बिहार ने अब राजनीतिक करवट लेनी शुरू की है। इस बार आवाज नारे से नहीं, ईवीएम की खामोशी से निकली है। पहले चरण में रिकॉर्ड वोटिंग ने उस शांति की तह खोल दी है जो पूरे राज्य में पसरी थी। रैलियां थीं, भाषण थे, लेकिन मतदाता ने चुप रहकर जवाब दिया। अब यह जवाब कई मायनों में नया और क्रांतिकारी है, जहां जाति की परंपरागत दीवारें बहुत तो नहीं, लेकिन थोड़ी हिली हैं। सबसे बड़ी बात महिलाएं चुनाव की असली धुरी यानी किंगमेकर बनती दिख रही हैं। यह मतदान न केवल विकास की बात कर रहा है, बल्कि एक अलग बदलाव की आहट भी दे रहा है।
साफ सुथरी मतदाता सूची
चुनाव आयोग के आंकड़े बताते हैं कि मतदान प्रतिशत बढ़ने का अहम कारण मतदाता सूची की शुद्धता भी है। एसआईआर के तहत लगभग 35 से 65 लाख फर्जी और मृत नामों को हटाया गया। इस तकनीकी सुधार ने न सिर्फ वोटिंग को अधिक वास्तविक बनाया बल्कि हर जागरूक वोट का वजन भी बढ़ा दिया। इस साफ-सुथरी सूची के बाद पहली बार वोट देने वाले युवा और ग्रामीण महिलाएं सबसे बड़ी सहभागी बनकर उभरे हैं।
कतारों की शक्ति
सुबह से लेकर शाम तक बूथों के बाहर दिखी लंबी कतारें किसी एक दल की नहीं, बल्कि बदलते बिहार की सशक्त तस्वीर थीं। महिलाओं ने पुरुषों से ज्यादा मतदान किया। कई जगह तो अंतर पांच से सात प्रतिशत तक पहुंचा। यह कोई आकस्मिक प्रवृत्ति नहीं, बल्कि राजनीतिक चेतना का प्रमाण है। पिछले दो चुनावों में भी यह रुझान दिखा था, लेकिन इस बार महिला मतदाता स्पष्ट रूप से निर्णायक भूमिका में आ गईं।
नीतीश कुमार की मुख्यमंत्री महिला रोजगार योजना
35% आरक्षण और स्वयं सहायता समूहों के नेटवर्क ने सुरक्षा और सम्मान का भाव दिया। दूसरी ओर, तेजस्वी यादव ने माई-बहन-मान योजना, 2,500 रुपये प्रति माह और उच्च शिक्षा में सब्सिडी जैसे वादों के जरिये सीधे आर्थिक लाभ का कार्ड खेला। इन दोनों ध्रुवों के बीच महिला मतदाता अब खुद को लाभार्थी से ज्यादा निर्णायक मान रही हैं। ग्रामीण बिहार में सुरक्षा, रोज़गार और सम्मान जैसे मुद्दों ने इस वर्ग को जाति-आधारित वोटिंग से बाहर निकालकर, विकास और भरोसे पर टिके नए समीकरणों पर मतदान करने के लिए प्रेरित किया है।
जातीय मिथक टूट रहे
पहले चरण की वोटिंग का दूसरा सबसे बड़ा संकेत पारंपरिक जातीय गोलबंदियों का टूटना है। यह मिथक अब टूट रहा है कि बिहार का मतदाता जाति के आधार पर सीमेंटेड सेगमेंट में बंटा है। आस्था अब सिर्फ पार्टी तक नहीं रही, बल्कि क्षेत्रीय सामाजिक समीकरणों और उम्मीदवार की व्यक्तिगत पकड़ के हिसाब से वोटिंग हुई। इसका सबसे बड़ा उदाहरण तेजस्वी यादव की अपनी राघोपुर सीट है। यादव-बहुल क्षेत्र में भी भाजपा प्रत्याशी सतीश यादव को अप्रत्याशित समर्थन मिला।
यह उस जातीय सीमेंट में दरार का प्रतीक है जो दशकों से राजनीति की नींव मानी जाती रही। इसी तरह मोकामा में भूमिहार बनाम यादव की क्लासिक लड़ाई इस बार उलट गई, जहां बाहुबली प्रभाव और स्थानीय वफादारियों ने जाति की रेखा को पीछे छोड़ दिया।
ईबीसी (अति पिछड़ा वर्ग) में भी दिलचस्प हलचल दिखी है, कुशवाहा, मल्लाह और धानुक वोट कई जगहों पर दोनों ओर बंट गए। यह संकेत है कि वोट अब सिर्फ जाति का नहीं रहा, बल्कि समीकरण का है।
दूसरे चरण के लिए ध्रुवीकरण की बिसात
एनडीए ने दूसरे चरण के लिए अपनी पिच बदलनी शुरू कर दी है। इसका एक कारण यह भी है कि बिहार में पहले चरण के चुनाव में जातीय गोलबंदी तो कहीं-कहीं खिसकती दिखाई पड़ी है, लेकिन मुस्लिम वोट महागठबंधन के साथ एकजुट दिख रहा है। हालांकि, मुस्लिम महिलाओं में नीतीश की सेंध की बात कही जा रही है। दूसरे चरण में सीमांचल और कोसी क्षेत्र के मुस्लिम बहुल इलाके शामिल हैं, जहां अल्पसंख्यक आबादी निर्णायक भूमिका में है।
इस क्षेत्र की जटिल सामाजिक-राजनीतिक गणना को देखते हुए, एनडीए (विशेषकर भाजपा) ने अपने विकास के एजेंडे को किनारे कर दिया है। अमित शाह, योगी आदित्यनाथ और हिमंत बिस्व सरमा जैसे फायरब्रांड नेताओं की रैलियों से स्पष्ट है कि अब यहाँ धार्मिक ध्रुवीकरण की बिसात बिछाई जा रही है। इसका लक्ष्य कोर हिंदू वोट बैंक को मजबूत करना और महागठबंधन के माई यानी मुस्लिम-यादव समीकरण में दरार डालकर पहले चरण के जातीय विचलन को संतुलित करना है।
तेजस्वी का त्रिकोण फोकस
इस बीच, महागठबंधन की ओर से तेजस्वी यादव अब रोजगार के साथ सम्मान की गारंटी पर फोकस कर रहे हैं। ग्रामीण बेल्ट में एनडीए की पकड़ बनी है। कुछ शहरी और अर्ध-शहरी इलाकों में महागठबंधन ने भी सेंध मारी है। महिलाओं की बंपर वोटिंग, युवाओं की नई प्राथमिकताएं, और जातीय दीवारों में दरार, इन तीनों ने मुकाबले को सीधी लड़ाई से आगे ले जाकर त्रिकोणीय बना दिया है।
सियासत की नई पटकथा
बिहार का मतदाता यह बता चुका है कि उसके लिए राजनीति का मतलब नारा नहीं, असर है। वह देख रहा है, कौन सुरक्षा देगा, कौन रोजगार लाएगा और कौन सम्मान से बात करेगा। जाति का मिथक टूटा है, लेकिन विश्वास का समीकरण अभी बन रहा है। पहला चरण इस कहानी की शुरुआत है, जहां महिलाएं और युवा अब सिर्फ वोटर नहीं, बल्कि सियासत की असली पटकथा लेखक बन चुके हैं।
बिहार ने अब राजनीतिक करवट लेनी शुरू की है। इस बार आवाज नारे से नहीं, ईवीएम की खामोशी से निकली है। पहले चरण में रिकॉर्ड वोटिंग ने उस शांति की तह खोल दी है जो पूरे राज्य में पसरी थी। रैलियां थीं, भाषण थे, लेकिन मतदाता ने चुप रहकर जवाब दिया। अब यह जवाब कई मायनों में नया और क्रांतिकारी है, जहां जाति की परंपरागत दीवारें बहुत तो नहीं, लेकिन थोड़ी हिली हैं। सबसे बड़ी बात महिलाएं चुनाव की असली धुरी यानी किंगमेकर बनती दिख रही हैं। यह मतदान न केवल विकास की बात कर रहा है, बल्कि एक अलग बदलाव की आहट भी दे रहा है।
साफ सुथरी मतदाता सूची
चुनाव आयोग के आंकड़े बताते हैं कि मतदान प्रतिशत बढ़ने का अहम कारण मतदाता सूची की शुद्धता भी है। एसआईआर के तहत लगभग 35 से 65 लाख फर्जी और मृत नामों को हटाया गया। इस तकनीकी सुधार ने न सिर्फ वोटिंग को अधिक वास्तविक बनाया बल्कि हर जागरूक वोट का वजन भी बढ़ा दिया। इस साफ-सुथरी सूची के बाद पहली बार वोट देने वाले युवा और ग्रामीण महिलाएं सबसे बड़ी सहभागी बनकर उभरे हैं।
कतारों की शक्ति
सुबह से लेकर शाम तक बूथों के बाहर दिखी लंबी कतारें किसी एक दल की नहीं, बल्कि बदलते बिहार की सशक्त तस्वीर थीं। महिलाओं ने पुरुषों से ज्यादा मतदान किया। कई जगह तो अंतर पांच से सात प्रतिशत तक पहुंचा। यह कोई आकस्मिक प्रवृत्ति नहीं, बल्कि राजनीतिक चेतना का प्रमाण है। पिछले दो चुनावों में भी यह रुझान दिखा था, लेकिन इस बार महिला मतदाता स्पष्ट रूप से निर्णायक भूमिका में आ गईं।
नीतीश कुमार की मुख्यमंत्री महिला रोजगार योजना
35% आरक्षण और स्वयं सहायता समूहों के नेटवर्क ने सुरक्षा और सम्मान का भाव दिया। दूसरी ओर, तेजस्वी यादव ने माई-बहन-मान योजना, 2,500 रुपये प्रति माह और उच्च शिक्षा में सब्सिडी जैसे वादों के जरिये सीधे आर्थिक लाभ का कार्ड खेला। इन दोनों ध्रुवों के बीच महिला मतदाता अब खुद को लाभार्थी से ज्यादा निर्णायक मान रही हैं। ग्रामीण बिहार में सुरक्षा, रोज़गार और सम्मान जैसे मुद्दों ने इस वर्ग को जाति-आधारित वोटिंग से बाहर निकालकर, विकास और भरोसे पर टिके नए समीकरणों पर मतदान करने के लिए प्रेरित किया है।
जातीय मिथक टूट रहे
पहले चरण की वोटिंग का दूसरा सबसे बड़ा संकेत पारंपरिक जातीय गोलबंदियों का टूटना है। यह मिथक अब टूट रहा है कि बिहार का मतदाता जाति के आधार पर सीमेंटेड सेगमेंट में बंटा है। आस्था अब सिर्फ पार्टी तक नहीं रही, बल्कि क्षेत्रीय सामाजिक समीकरणों और उम्मीदवार की व्यक्तिगत पकड़ के हिसाब से वोटिंग हुई। इसका सबसे बड़ा उदाहरण तेजस्वी यादव की अपनी राघोपुर सीट है। यादव-बहुल क्षेत्र में भी भाजपा प्रत्याशी सतीश यादव को अप्रत्याशित समर्थन मिला।
यह उस जातीय सीमेंट में दरार का प्रतीक है जो दशकों से राजनीति की नींव मानी जाती रही। इसी तरह मोकामा में भूमिहार बनाम यादव की क्लासिक लड़ाई इस बार उलट गई, जहां बाहुबली प्रभाव और स्थानीय वफादारियों ने जाति की रेखा को पीछे छोड़ दिया।
ईबीसी (अति पिछड़ा वर्ग) में भी दिलचस्प हलचल दिखी है, कुशवाहा, मल्लाह और धानुक वोट कई जगहों पर दोनों ओर बंट गए। यह संकेत है कि वोट अब सिर्फ जाति का नहीं रहा, बल्कि समीकरण का है।
दूसरे चरण के लिए ध्रुवीकरण की बिसात
एनडीए ने दूसरे चरण के लिए अपनी पिच बदलनी शुरू कर दी है। इसका एक कारण यह भी है कि बिहार में पहले चरण के चुनाव में जातीय गोलबंदी तो कहीं-कहीं खिसकती दिखाई पड़ी है, लेकिन मुस्लिम वोट महागठबंधन के साथ एकजुट दिख रहा है। हालांकि, मुस्लिम महिलाओं में नीतीश की सेंध की बात कही जा रही है। दूसरे चरण में सीमांचल और कोसी क्षेत्र के मुस्लिम बहुल इलाके शामिल हैं, जहां अल्पसंख्यक आबादी निर्णायक भूमिका में है।
इस क्षेत्र की जटिल सामाजिक-राजनीतिक गणना को देखते हुए, एनडीए (विशेषकर भाजपा) ने अपने विकास के एजेंडे को किनारे कर दिया है। अमित शाह, योगी आदित्यनाथ और हिमंत बिस्व सरमा जैसे फायरब्रांड नेताओं की रैलियों से स्पष्ट है कि अब यहाँ धार्मिक ध्रुवीकरण की बिसात बिछाई जा रही है। इसका लक्ष्य कोर हिंदू वोट बैंक को मजबूत करना और महागठबंधन के माई यानी मुस्लिम-यादव समीकरण में दरार डालकर पहले चरण के जातीय विचलन को संतुलित करना है।
तेजस्वी का त्रिकोण फोकस
इस बीच, महागठबंधन की ओर से तेजस्वी यादव अब रोजगार के साथ सम्मान की गारंटी पर फोकस कर रहे हैं। ग्रामीण बेल्ट में एनडीए की पकड़ बनी है। कुछ शहरी और अर्ध-शहरी इलाकों में महागठबंधन ने भी सेंध मारी है। महिलाओं की बंपर वोटिंग, युवाओं की नई प्राथमिकताएं, और जातीय दीवारों में दरार, इन तीनों ने मुकाबले को सीधी लड़ाई से आगे ले जाकर त्रिकोणीय बना दिया है।
सियासत की नई पटकथा
बिहार का मतदाता यह बता चुका है कि उसके लिए राजनीति का मतलब नारा नहीं, असर है। वह देख रहा है, कौन सुरक्षा देगा, कौन रोजगार लाएगा और कौन सम्मान से बात करेगा। जाति का मिथक टूटा है, लेकिन विश्वास का समीकरण अभी बन रहा है। पहला चरण इस कहानी की शुरुआत है, जहां महिलाएं और युवा अब सिर्फ वोटर नहीं, बल्कि सियासत की असली पटकथा लेखक बन चुके हैं।
